डॉ. धर्मवीर यादव
योग विशेषज्ञ, इंदिरा गांधी विश्विद्यालय रेवाड़ी हरियाणा
मोबाइल न. 9466431860
मानव शरीर पांच तत्वों पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से मिलकर बना है। इन पांचों तत्त्वों में वायु तत्त्व सबसे प्रधान है। यही तत्त्व हमारे शरीर को जीवित रखता है और वात शरीर को धारण करने वाले त्रिदोष में मुख्य है। वात अर्थात वायु ही श्वास के रूप में मनुष्य का प्राण है। वैदिक ग्रंथों में प्राणों को सर्वरोग नाशक औषधी और ब्रह्म कहा है। प्राण शरीर के रोम रोम में व्याप्त रहते हैं। शरीर में ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां विश्राम कर लेते हैं लेकिन हमारे प्राण रात दिन अनवरत चलते रहते हैं।
हठयोग के प्रसिद्ध योगग्रंथ हठप्रदिपिका में स्वामी स्वात्माराम कहते हैं
चले वाते चलम चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। 2.2
यावद्वाय: स्थितो देहे तावजीवन मुच्यते। 2.3
अर्थात प्राणवायु के चंचल होने से हमारा चित्त भी चंचल हो जाता है और प्राणवायु के स्थिर हो जाने से हमारा चित्त भी स्थिर हो जाता है।
हमारे जीवन का आधार प्राण तत्त्व ही है। शरीर में जब तक प्राणवायु विद्यमान रहती है, तब तक ही जीवन कहलाता है या जीवित व्यक्ति कहा जा सकता है। लेकिन जैसे ही यह प्राणवायु या प्राणशक्ति हमारे शरीर का साथ छोड़ देती है, वैसे ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। योगगुरु स्वामी रामदेव जी अपने साधकों को बहुत सरल शब्दों में अक्सर कहते हैं
जब फूक (प्राण)निकल जायेगी तब फूक (जला) देंगे लोग आपको
संपूर्ण ब्रह्मांड में प्राण सर्वाधिक शक्तिशाली एवं उपयोगी जीवनीय शक्ति ( Vital Energy)है।
प्राण की वजह से ही देह अथवा पिण्ड और ब्रह्मांड की सत्ता है। प्राण रूपी अदृश्य शक्ति की वजह से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन हो रहा है।
हमारा शरीर पंचकोश से बना है। हमारा अन्नमय कोश अर्थात दृश्य शरीर भी प्राणमय कोश की अदृश्य ऊर्जा शक्ति से संचालित हो रहा है।
ज्ञानयोग के महत्तवपूर्ण ग्रंथ योगवसिष्ठ के निर्वाण प्रकरण में आधि व्याधि की चर्चा करते हुआ महर्षि वसिष्ठ भगवान श्रीराम को कहते हैं कि मानसिक आघात से चित्त व्याकुल हो जाता है। और इसी वजह से क्षुब्ध हुई प्राणवायु अपने समत्व भाव को छोड़कर शरीर में विपरीत मार्ग में बहने लगती है। प्राणवायु का ठीक से संचालन न होने से खाया हुआ अन्न कुजीर्णता, अजीर्णता या अपच को ही प्राप्त होता है । सभी प्रकार की शारीरिक मानसिक व्याधियों की उत्पत्ति का मूल कारण प्राणवायु का असंतुलन ही है।
श्वासों का विज्ञान
सामान्यत सभी मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। जिसमें हमारे श्वसन प्रणाली के अंग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। नासिका गुहा, ग्रसनी, स्वरयंत्र, श्वास प्रणाल या ट्रेकिया , श्वासनली श्वसनीकाएं, वायुकोश, फेफड़े आदि श्वसन संस्थान के अंग है। श्वसन क्रिया वस्तुत दो पूर्णतः भिन्न भिन्न क्रियाओं प्रश्वसन (प्राणवायु को अंदर लेना)और निः श्वसन ( त्याज्य गैसों को बाहर निकालना) का मिला हुआ रूप है। श्वसन तंत्र के द्वारा श्वसन क्रिया दो विभिन्न स्तरों पर आधारित होती हैं। एक बाह्य श्वसन होता है और एक आंतरिक श्वसन होता है। शरीर की सबसे छोटी ईकाई कोशिका में भी श्वसन क्रिया होती है।
मनुष्य भोजन पानी के बिना कुछ दिनों तक जीवित रह सकता है लेकिन लेकिन प्राणवायु के बिना कुछ मिनट जीना मुश्किल हो जाता है।इसलिए भारतीय सनातन संस्कृति में प्राणों को संजीवनी बूटी कहकर संबोधित किया गया है।
जैसे ही हम मां के गर्भ से बाहर की दुनिया में आते है तब से मृत्यु होने तक श्वास प्रक्रिया चलती रहती है। जन्म के समय तो हमारी श्वसन गति प्रकृति अनुसार तालबद्ध होती है लेकिन धीरे धीरे हमारी श्वसन गति बिगड़ने लग जाती है। क्योंकी उम्र बढ़ने के साथ साथ व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा, भागदौड़ भरी जिंदगी, तनाव, अवसाद, चिंता, काम, क्रोध, आलस्य, दुःख आदि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकार घेरने लगते है। कुछ इसमें पर्यावरण कारक भी सम्मिलित हैं। जिससे धीरे धीरे श्वास का संतुलन बिगड़ने लग जाता है। मनुष्य श्वास के बिगड़ते संतुलन को योग ध्यान साधना से संतुलित करने का अनायास प्रयास भी नहीं करना चाहता है।
एक महान विचारक ने कहा भी है
जिंदगी छोटी नहीं होती,लोग जीना ही देरी से शुरू करते हैं।
जब तक रास्ते समझ में आते हैं तब तक लौटने का समय हो जाता है।
यही बात श्वांसों पर लागू होती है। भगवान ने तो सभी मनुष्यों को श्वास गिनकर दिए हैं। लेकिन मनुष्य श्वासोँ की कद्र करना जानता ही नहीं है। उसे यह नहीं पता होता है की प्रत्येक सांस के साथ आपकी उम्र कम हो रही है। जब पता चलता है तब तक उम्र बीत जाती है।आज मनुष्य को प्रतिस्पर्धा,तनाव और भागदौड़ भरी जिंदगी में लंबा गहरा और सकून भरा सांस लेनी की फुर्सत ही नहीं है। जिसकी वजह से एक चौथाई भाग ( 25% ) तक ही सांस फेफड़ों तक पहुंच पाता है। बाकी फेफड़ों का तीन चौथाई ( 75%) निष्क्रिय पड़ा रहता है।
मधुमक्खी के छत्ते की तरह फेफड़ों में लगभग सात करोड़ तीस लाख छोटे छोटे स्पंज की तरह दिखाई देने जैसे कोष्ठक होते हैं। लंबे समय तक सामान्य श्वास प्रक्रिया होने की वजह से लगभग दो करोड़ छिद्रों तक ही प्राणवायु पहुंच पाती है , शेष पांच करोड़ तीस लाख छिद्रों में लंबे समय तक प्राणवायु का संचार न होने से ये निष्क्रिय पड़ने लगते हैं। जिसके परिणामस्वरूप इन छिद्रों में गंदगी जमने लग जाती है, जिससे धीरे धीरे श्वसन संबंधित अनेक रोग, जैसे खांसी, जुकाम, अस्थमा, टीबी, ब्रोंकाइटिस आदि अपना स्थाई डेरा डालना शुरू कर देते हैं। इसके बाद निरंतर शरीर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों का घर बनता चला जाता है।
श्वासों का आध्यात्मिक विज्ञान
संचित कर्मों की वजह से ही मनुष्य को प्रारब्ध रूपी कर्मयुक्त जीवन मिलता है। कहते हैं की सभी मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार प्राणों या श्वांसो की संख्या गिनकर दी हुई है। अक्सर आपने कहते हुए भी सुना होगा जब कोई व्यक्ति मृत्यु के नजदीक होता है जब केवल उसके सांस चल रहे होते हैं। उस स्थिति को देखकर अनुभवी लोग कहते हैं की अभी इसकी सांसे पूरी नहीं हुई है कुछ बची हुई है, जब सांस पूरी होंगी तब ही भगवान का बुलावा आएगा। वैसे भी इस सृष्टि में जो प्राणी प्रति मिनट जितने कम श्वास लेता है वह वह उतना ही दीर्घजीवी भी होता है।
कछुआ प्रति मिनट 4 से 5 सांस लेता है और 300 से 400 वर्ष तक जीवित रहता है। इसी प्रकार कबूतर, चिड़िया, गाय, भैंस, कुत्ता सभी प्रति मिनट 30 से अधिक श्वास लेते हैं और इनकी उम्र उसी अनुसार मनुष्य से उम्र काफी छोटी होती है।
सामान्यत एक स्वस्थ मनुष्य प्रति मिनट औसतन 16 से 18 श्वास लेता है। इस प्रकार एक दिन 24 घंटे में लगभग 24 हजार श्वास प्रक्रिया करता है। इस प्रकार मनुष्य की आयु हमारे सभी शास्त्रों में 100 वर्ष बताई है। यदि मनुष्य प्राण साधना करके श्वास की गति प्रति मिनट 8 लेकर आ जाता है तो वह 200 वर्षों तक जीवन जी सकता है। यदि योगसाधक प्रति मिनट सांस की गति 4 ले आता है तो वह 400 वर्ष की उम्र को प्राप्त कर सकत है। क्योंकि 4 सांस प्रति मिनट लेने पर वह योगसाधक एक दिन में केवल 6 हजार ही सांस लेता है इस प्रकार प्रत्येक दिन उसकी 18 हज़ार सांस बच जाती है जो उसकी उम्र में जुड़ती जाति हैं। इसी कारण प्राचीनकाल में हमारे ऋषि,मुनि, योगी, साधु 400 वर्ष से अधिक उम्र का जीवन ही नहीं जीते थे बल्कि चिरंजीवी होते थे। यानी योग साधना से वो अपने प्राणों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेते थे। हमारे ऋषियों ने दीर्घजीवी होने का यही रहस्य बताया है।
श्वास को बचाएं और उम्र को बढ़ाएं
श्वास है तो आस है। इसलिए निरंतर प्राण साधना अर्थात विभिन्न प्राणायामों के माध्यम से हम अपने श्वास की गति को कम करके विभिन्न रोगों से बच सकते है। आजकल लोग जल्दी जल्दी बीमार इसीलिए होते हैं की वो लंबा श्वास लेने के अभ्यस्त नहीं है। जिससे शरीर में ऑक्सीजन ठीक से पहुंच नहीं पाति और शरीर की सभी गतिविधियां मंद होने लग जाती है। अंततः शरीर को बीमारी के रूप में इसका कष्ट भोगना पड़ता है।
यौगिक गहरा श्वसन सूक्ष्म व्यायाम, आसन, भस्त्रिका, सूर्यनमस्कर, भ्रामरी, उज्जाई, नाडीशोधन प्राणायाम, मंत्र, जप,प्रार्थना ध्यान, मुद्रा व बंध, षटकर्म आदि का गुरु सान्निध्य में रहकर निरंतर अखंड अभ्यास से श्वसों की गति को लंबा और गहरा किया जा सकता है। जैसे जैसे आपके श्वांसो की गति लंबी और गहरी होती चली जायेगी वैसे वैसे आपके रोगों का समूल नाश होता चला जाएगा और आप आरोग्ययुक्त होकर दीर्घजीवी हो जायेंगे।